थोथे तर्कहीन चुनावी वादों पर क्यूँ न चले चुनाव आयोग का हंटर ?

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नरेश भारद्वाज

इस बात से मुँह नही मोड़ा जा सकता की दिनो दिन राजनीति का जो बीभत्स और कुत्सित रूप देखने को मिल रहा है, उसके पीछे लोक लुभावन और कोरे चुनावी वादे हैं. इंदिरा काल में शुरू हुआ नारा, कांग्रेस का हाथ ग़रीबों के साथ, देश से ग़रीबी हटाएँगे. ये वाक़ई वक़्त की उचित माँग थी. ग़रीबों के लिए ग़रीबी मिटना किसी वरदान से कम नही था. देश के कमज़ोर बर्ग़ ने इस नारे/वादे पर बिस्वास किया और वर्ष 2014 तक कांग्रेस ने इस थोथे वादे को भुनाते हुए राज किया l

देश के संसाधनों पर पहला हक़ अल्पसंख्यको का है, वादों के साथ कांग्रेस की घोषणा भी जुड़ी. नारे वादे अनवरत ज़िन्दा रहे और साथ में ज़िन्दा रही ग़रीबी और ना ही अल्पसंख्यको को मिल पाया अधिकार. वादे सुनने वाला ग़रीब से ग़रीब होता गया और वादे करने वाले अमीर होते गए. इंदिरा कांग्रेस के नक़्शे क़दम पर चलते हुए बदलते समाज और समय के साथ साथ नए वादे/नारों का उदय हुआ l

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सनातन धर्म पर आघात करते हुए, हाथी नही गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है, तिलक तराज़ु और तलवार इनको मारो…चार, सामाजिक अपमान के नारे लगे, और विडम्बना देखिये ऐंसे घृणित नारे लगाने वालों की सरकार भी बनी. खेला होबे, नारा लगा, खेला हुआ सरकार बनी. हाँ, एक नारा ऐसा भी लगा जिसने मूर्त रूप भी धारण किया, और वह था, रामलला हम हम आएँगे मंदिर वही बनाएँगे. सरकार भी बनी तो राम मंदिर भी बना. जैसे जैसे वामपंथी बिचारधारा राजनीति पर हावी होती गई, चुनाव जीतने के वादों ने भी मतदाताओं की भावनाओं पर चोट करनी शुरू कर दी. मुफ़्त की बिजली पानी के वादों का दौर शुरू हुआ. और इसका श्रेय जाता है आंदोलन से उपजे दल को. यह जानते हुए भी की इससे राज्य की अर्थ ब्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा,

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इस वादे को भी मतदाताओं ने हाँथों हाथ लिया और केंद्र शासित राज्य में सरकार भी बनवा डाली. राज्य की अर्थ ब्यवस्था को चौपट करने वाले वादे में उतराखंड में इज़ाफ़ा देखने को मिला. मुफ़्त बिजली में जुड़ गया, छः माह में एक लाख सरकारी नौकरी और ₹5000/- प्रतिनाह का बेरोज़गारी भत्ता. तीनो वादे अवश्यम्भावी हैं. यह देश के अर्थशास्त्री, भारत का चुनाव आयोग ही नही, मतदाता भी जानते हैं. लेकिन विडम्बना देखिये, मतदाता इन थोथे वादों पर भरोसा करने को तैयार बैठा है तो अर्थ शास्त्री और चुनाव आयोग मूकदर्शक बना बैठा है. आम जनता के मुफ़्त शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी और संवैधानिक अधिकार पर ये तर्कहीन वादे/नारे भारी पड़ रहे है.

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किसी भी राजनीतिक दल को शिक्षा स्वास्थ्य रोज़गार पर न सोचने का समय न करने का. बस चुनाव जीतने की लालसा में वादों को बड़ा करने की होड़ लगी है. एक दल बिजली के सौ यूनिट फ़्री करने का वादा करता है तो दूसरा दो सौ, तीसरा तीन सौ, और विकास कही खोता चला जा रहा है. यक्ष प्रश्न, क्यू न चले इन थोथे और तर्कहीन वादों पर चुनाव आयोग का हंटर?

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