गढ़वाली इगास बग्वाल: परंपरा, संस्कृति और एकता का प्रतीक पर्वउत्तराखंड में इगास बग्वाल की धूम, डॉ. (प्रो.) डी. सी. पसबोला ने बताया इतिहास, परंपरा और विशेषताएं
देहरादून, संवाददाता:
गढ़वाल और कुमाऊं की पहाड़ियों में दीपावली के ग्यारह दिन बाद जब रात में दीपक झिलमिलाते हैं और लोकगीतों की धुनें गूंजती हैं, तब समझ लीजिए — उत्तराखंड में इगास बग्वाल का उल्लास चरम पर है। यह पर्व न केवल सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है, बल्कि अपनी जड़ों से जुड़ने का अवसर भी देता है।
इतिहास और मान्यता
डॉ. (प्रो.) डी. सी. पसबोला बताते हैं कि इगास बग्वाल दो प्रमुख मान्यताओं से जुड़ा हुआ है —
भगवान राम की वापसी:
मान्यता है कि भगवान राम के लंका विजय के बाद अयोध्या लौटने की खबर गढ़वाल क्षेत्र में दीपावली के 11 दिन बाद पहुंची थी। उस खुशी में लोगों ने दीप जलाकर उत्सव मनाया — जिसे “इगास बग्वाल” कहा गया।
माधो सिंह भंडारी की विजय:
एक अन्य कथा के अनुसार, गढ़वाल के वीर योद्धा माधो सिंह भंडारी तिब्बत युद्ध में विजय प्राप्त कर 11 दिन बाद लौटे। तब पूरे क्षेत्र ने दीप जलाकर उनका स्वागत किया और उसी दिन से यह पर्व मनाया जाने लगा।
भैलो खेल बना आकर्षण का केंद्र
इगास बग्वाल की सबसे प्रमुख परंपरा है ‘भैलो खेल’।
इसमें चीड़ की टहनियों या सूखी लकड़ियों से मशालें (भैलो) बनाई जाती हैं। रात में इन्हें जलाकर लोग गोल-गोल घुमाते हैं, और पारंपरिक गीत गाते हैं —
“भैलो रे भैलो…”
“काखड़ी को रैलू…”
“उज्यालू आलो, अंधेरो भगलू…”
इन गीतों की गूंज के साथ गांव-गांव में उल्लास और उत्सव का माहौल छा जाता है।
पर्यावरण और परंपरा का संगम
यह पर्व पूरी तरह पर्यावरण-अनुकूल है। इसमें पटाखों का प्रयोग लगभग नहीं होता। महिलाएं पारंपरिक ऐपण बनाती हैं, घरों में पारंपरिक पकवान जैसे झंगोरा की खीर, अरसे, सिंगल आदि बनाए जाते हैं।
सांझ होते ही बच्चे, युवा और बुजुर्ग सभी एक साथ “भैलो खेल” में भाग लेते हैं।
सामाजिक एकता और सांस्कृतिक चेतना का पर्व
इगास बग्वाल केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि उत्तराखंड की आत्मा का उत्सव है।
यह पर्व समाज में सामूहिकता, एकता और सांस्कृतिक चेतना को मजबूत करता है।
नई पीढ़ी को अपनी लोक परंपराओं से जोड़ने का यह एक अनूठा माध्यम है।
“भैलो रे भैलो… उज्यालू आलो, अंधेरो भगलू!”
गढ़वाल की घाटियों और कुमाऊं की वादियों में इगास बग्वाल की रौनक हर दिल में उजियारा भर देती है।